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प्रसन्न-चित्त रहने के सार्वभौमिक परिणाम एवं लाभ

शांति और सुकून से अधिक पैसा, अधिक सुविधाएं, मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा, प्रसिद्वि आदि तो हासिल की जा सकती है लेकिन यह सब कुछ मिलकर भी मन को शांति और सुकून देने के लिए प्रयाप्त नहीं होते!

by Meenakshi Bhatt

इस दुनिया मे शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो प्रसन्न नहीं रहना चाहता हो, हर व्यक्ति चाहता है कि वह सुखी जीवन जिए और खुश रहे। इस खुशी की चाहत में वह दिन रात एक करने में लगा रहता है। वह अधिक से अधिक मेहनत कर के अधिक से अधिक सुविधाओं का संग्रह करने में लगा रहता है लेकिन सारी सुविधाओं के होते हुए भी उसे सुकून नहीं मिलता जिसकी तलाश में वह दर-दर घूमता रहता है।

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि जीवन सदैव खुशी से व्यतीत करना चाहिए किन्तु आधुनिक जीवन की भागदौड़ में इतने उतार चढ़ाव होते हैं कि सदैव प्रसन्न रहने इतना आसान नहीं होता जितना मान लिया जाता है। बोलना तो बहुत सरल होता है लेकिन करना उतना ही कठिन। जीवन के उतार चढ़ाव लोगों में निराशा भर देते हैं, इसलिए सुख-दुख को जीवन का अभिन्न हिस्सा मान लिया जाता है और यह स्वीकार करना पड़ता है कि इसी सुख और दुख के सहारे जीवन गुजरना है।

व्यक्ति की उम्मीदें, जरूरतें, आदतें इस स्तर तक बढ़ गईं है कि वह उन्हीं में उलझ कर रह गया है और यही उसकी अधिकतर परेशानियों का कारण है। व्यक्ति को चाहें जितना मिल जाए, उसे वह कम ही लगता है, उसे सन्तुष्टि नहीं मिलती। जब एक जरूरत पूरी होती है तो उसके अंदर दूसरी जरूरत जाग्रत हो जाती है और फिर यह क्रम उत्तरोत्तर चलता रहता है। वह जितना आगे बढ़ने के प्रयास करता है, वास्तविकता में उतना ही पीछे स्वयं को धकेलता है।

प्रसन्न-चित्त रहने के फायदे

व्यक्ति अगर मन से संतुष्ट रहता है और अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं के मध्य सन्तुलन बनाकर चले तो जीवन का चाहे जो भी क्षेत्र हो,  आर्थिक, सामाजिक या व्यवसायिक, अपने प्रभावी प्रयासों के कारण उचित सामंजस्य स्थापित करता है और अपने कार्यों में सफलता अर्जित करता है।

प्रसन्न रहने वाले लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है जो उनमें स्वस्थ रखने की क्षमता विकसित करती है। ऐसा होने से जाहिर तौर पर यह भी सम्भव हो सकता है कि प्रसन्न लोगों के जीवनकाल मे बढ़ोत्तरी होती है और खुश लोग अधिक समय तक जीते हैं।

खुश रहने वाले लोगों का वैवाहिक जीवन सुखमय होता है और वे विवाहोत्तर जीवन का सन्तोषजनक आंनद लेते हैं और अपने बच्चों के लिए बेहतर और आदर्श माता पिता की भूमिका निभाते हैं।

प्रसन्नता लोगों में प्रतिकूल परिस्थितियों के प्रति व्यक्ति को उनसे उबरने की ताकत प्रदान करती है और यदि  ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जो बहुत ही अधिक आघातपूर्ण हो तो प्रसन्नचित व्यक्ति आसानी से झेल लेते हैं। खुशी कभी भी सीमित नहीं होती बल्कि इसका विस्तार होता रहता है और इसका फायदा कार्यस्थल में भी रहता है , खुशी से कार्य करने के दौरान व्यक्ति के कार्य निष्पादन में वृद्धि होती है और वह अपने कार्यक्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन कर पाता है, जिससे आय बढ़ती है और व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है।

ऐसा भी माना जाता है कि जिन सगंठनों में प्रसन्नचित्त कर्मचारियों की संख्या अधिक होती है, उस संगठन का उत्पादन भी उतना ही अधिक होता है और संगठन अधिक विकास करता है। अतः खुश रहने के व्यक्तिगत फायदे अथवा पुरस्कार तो मिलते ही हैं साथ ही खुश रहना परिवार, समुदाय और समाज के लिए भी वरदान साबित होता है।

प्रसन्न कैसे रहा जाए

हर कोई खुश रहना चाहता है और जिसके लिए यही प्रयास किया जाता है कि जीवन में जो कुछ भी किया जाए, वह सब बेहतर से बेहतर हो ताकि मन में खुशी बरकरार रहे। क्या खुश रहने के लिए अधिक पैसा, अधिक सुविधाएं, मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा, प्रसिद्वि आवश्यक है?  क्या वास्तविकता में जिसके पास यह सब हो, तो क्या वह खुश रह सकता है जब तक उसका मन शांत न हो?

शांति और सुकून से अधिक पैसा, अधिक सुविधाएं, मान सम्मान, पद प्रतिष्ठा, प्रसिद्वि आदि तो हासिल की जा सकती है लेकिन यह  सब कुछ मिलकर भी मन को शांति और सुकून देने के लिए प्रयाप्त नहीं होते!

कुछ लोग अलग ही तरह से खुश रहने के पक्षधर हो सकते हैं। जैसे कि फ्रांसीसी उपन्यासकार गुस्ताव फ्लेबर्ट के अनुसार “मूर्ख होना, स्वार्थी होना और अच्छा स्वास्थ्य होना खुशी के लिए तीन आवश्यकताएं हैं, हालांकि अगर मूर्खता की कमी है, तो सब कुछ खो जाता है”। उनका कहना था कि स्वार्थी और मूर्ख व्यक्ति ही अधिक खुश हो सकता है अगर वह स्वस्थ है तो और अगर मूर्खतापूर्ण व्यवहार व्यक्ति में न हो तो वह कभी खुश नहीं रह सकता।

खुश रहने का एक पहलू यह भी है कि व्यक्ति के अंदर स्वयं के प्रति और अन्य लोगों के प्रति जो उसके परिवार के हैं, समाज के हैं, जिनसे वह स्वयं को जोड़ लेता है, दया और करुणा का भाव है या नहीं है।

अगर व्यक्ति में स्वयं एक प्रति और अन्य जनों के प्रति दया और करुणा की भावना होती है तो वही स्वयं के साथ-साथ अन्य लोगों के बारे में, उनकी भलाई के बारे में अधिक सोचेगा और उनकी भलाई के लिए, देखभाल के लिए, उनकी देखरेख के लिए आवश्यक प्रयास भी करेगा जिसके सफल परिणाम भी दृष्टिगोचर होते हैं। यही परिणाम उस व्यक्ति के साथ साथ पूरे परिवेश को प्रसन्नचित करने में मदद करता है। यही प्रसन्नतापूर्ण जीने का सफल मूल मंत्र माना जा सकता है।

इसलिए जरूरी है कि व्यक्ति मन की गहराई में उतर कर स्वयं को महसूस करे और जानें कि वह स्वयं के बारे में क्या और कैसा सोचता है, वह अन्य के बारे में कैसा सोचता है। अगर उसकी सोच अच्छी होगी, विचार अच्छे होंगे तो उसमें उत्साह और आनंद की अपने आप ही अनुभूति होगी, क्योंकि अच्छे विचार और भावना ही अच्छे कार्य और व्यवहार की नींव रखते हैं।

इस कार्य और व्यवहार से ही व्यक्ति स्वयं के लिए भी अच्छा करता है और साथ ही साथ दूसरों के बारे में भी अच्छा करने के लिए सदैव प्रतिबद्ध और तत्पर रहता है। ऐसा होने से अपने और आसपास के लोगों से सम्बन्ध भी मधुर होते हैं और जीवन में प्रसन्नता होती है क्योंकि वह किसी के बारे में ऐसा सोचता ही नहीं कि दुःख की जरा भी अनुभूति हो। अनुभूति होती है तो सिर्फ खुशी की।

इसलिए सदैव प्रसन्न रहिए और मुस्कराते रहिए। स्वयं आगे बढ़िए और दूसरों को भी आगे बढ़ने में मदद कीजिए।

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